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एक असम्भव प्रेम गाथा अनन्त में प्रशनवाचक द्वारा प्रशणावली शैली में प्रश्न श्रृंखला में प्रश्न अंकित किए जा रहे।।
🔴आत्मा ही परमात्मा है तथा वास्तविकता में सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि सर्वोच्च सर्वप्रथम परमात्मिका कर्मपोशित कर्मपोटली स्वागिंनी नपुंसकीय आहुतिका विध्वंसकीय नपुंसकीय है।।बिन परमात्मा के आत्मा भी कुछ नहीं इसलिए परमात्मा ही आत्मा के रूपांतरण व चित्रांकन में इस माटी कि कर्मपोशित कर्मपोटली स्वागिंनी नपुंसकीय आहुतिका श्रापिका आदि बनाकर कालचकृ को त्री स्तुति से नियंत्रित करने में सफल है उसी ने उस योनि के कुल शून्य में परिवर्तित कर नपुंसकीय आहुतिका श्रापिका आदि घोषित किए तथा इस तरह गाथा में उसे स्वयं में डालकर इच्छा व स्वार्थ से ग्रस्त होकर रोगिन योनि में प्रवेश कर उसे और इस गाथा को संभव व अन्त में करके कालचकृ में प्रस्तुत किया गया है।।इसलिए परमात्मिका की स्वयं कर्मपोशित कर्मपोटली स्वागिंनी नपुंसकीय आहुतिका श्रापिका आदि होकर इस गाथा में निवास करती हैं यही वो है जो इस गाथा का स्तंभलेख है।।इस गाथा के सृजन पर आधारित उल्लेख तथा यह गाथा के रूपांतरण का स्पष्टीकरण मांगा हुआ है।।इस गाथा के सृजन पर आधारित उल्लेख तथा यह गाथा के रूपांतरण का स्पष्टीकरण मांगा हुआ है।।🔴वे नपुंसक आहुतिका को एक सिद्ध शून्यनिका नपुंसकीय आहुतिका श्रापिका प्रयोगिनी बनाने वाले नपुंसक आहुतिका की आसीमता को समाप्त कर उसकी बलि ने तथा कालचकृवी बनकर सिद्ध गाऊ बनकर बैकुनडी रीढ़ा बनकर बैठकुन्धाम गाऊ भेजने वाले नपुंसक आहुतिकी व नपुंसक महान् क्रान्तिकारी परिवर्तनशील कालचकृ के द्वारा रचित श्रृंखला में लिगश्रोथ कालश्रोथ जातिश्रोत का निर्माण करने वो सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि सर्वोच्च सर्वप्रथम परमात्मिका कर्मपोशित कर्मपोटली स्वागिंनी नपुंसकीय आहुतिका विध्वंसकीय प्रतिद्वंद्वी कौन है।।जिन्हें परमात्मिका होने पर कर्मपोशित कर्मपोटली स्वागिंनी नपुंसकीय आहुतिका विध्वंसकीय प्रतिद्वंद्वी आदि होने के पश्चात् गुनाहों का देवता माना गया है।।प्रयोगिनी उतपदिका🔴 वह प्रशनवाचक कहता है कि
समय आने पर लिगश्रोथ कालश्रोथ जातिश्रोत जातिश्रोत सब में परिवर्तिन आता तब उस नपुंसकीय विध्वंसकीय प्रतिद्वंद्वी की आसीमता कौन सी योनि में प्रवेश करती यह उसका वास्तविक कालचकृ बतता है कि वो एक नपुंसकीय विध्वंसकीय प्रतिद्वंद्वी होगा या एक वैशया या एक किन्नर या एक डायन या सहायकश्रोत उस वैश्य कुल जहां वैश्य नारीया,सत्रीया,अर्थहीनिका,
सब उसके स्वांग व स्वार्थ व इच्छा पूर्ति के चक्रव्यूह में फंसकर बौराया हुए एक प्यासे तथा बलहीन वह कालश्रोथ विभकितश्रोत लिगश्रोथ जातिश्रोत सबकुछ शून्य में परिवर्तित होकर भी वह एक राखिका के प्यासे मगर वही दंड भी है वहीं अन्त भी है वहीं इस गाथा की संभव होने की उम्मीद भी है।।मगर वह उम्मीद ही उसकी मरियादा तथा धर्म को शून्य कर उसकी इच्छा व स्वार्थ को कालश्रोथ विभकितश्रोत लिगश्रोथ जातिश्रोत में एक प्रलयकाल विनाषकाल विध्वंशकाल आदि मौजूद करती ताकि वह इस गाथा का अन्त व संभव निश्चित कर सके मगर कालचकृ उसे ऐसा करने में काभी सक्षम नहीं होने देता है जिसके कारण यह गाथा अनन्त व असंभव ही रहेगी।।मगर वास्तविक में यह गाथा अनन्त से अन्त में होकर असंभव से संभव होकर अपनी आलौकाकता से अपनी योनि व चूत कि आसीमता को समाप्त कर अपनी नारित्व व स्त्रीत्व को कालचकृ में प्रवाहित कर शून्य होकर एक दृश्य रूप में आकर इस असंभव व अनन्त में होकर इच्छा व स्वार्थ में परिवर्तित होकर
जाग्रति कर रही इसका तात्पर्य यह है कि "इस माटी से पुतले द्वारा प्रत्येक कार्य हमारी आत्मा अर्थात परमात्मा के द्वारा ही संभव है मगर यह कालचकृ निरंतर चक्राणी भवानि भवन्तु दुखिना प्रयलयात्मक संकेत दिशानि भवा होने सा परमात्मा सा रूहम् विभकितश्रोत लिगश्रोथ जातिश्रोत सबकुछ शूनयमय की योनि व चूत में डाल उसके लन्ड को समाप्त तथा उसकी योनि व चूत को शूनयमय करके यह गाथा को कालश्रोथ जातिश्रोत लिगश्रोथ सबको शून्यम् दिखाकर यह साबित करना चाहते हैं कि यह गाथा अनन्त से अन्त में होकर संभव में असभव से हो चुकी है जिसकी स्मृतियों को उन्हें एक वैशया एक किन्नर एक नपुंसकीय आहुतिका आदि के रूप में रूपांतरण करके गाथा में प्रस्तुत किया और यह बताया कि हमारा शरीर किसी भी चीज का जिम्मेदार नहीं बल्कि अगर कोई जिम्मेदार है तो केवल एकमात्र विकल्प मैं ही हूं क्योंकि मैं ही परमात्मा होकर आत्मा जो कि उस परमात्मिका संग पहले ही सा बैठकुन्धाम सा गाऊ लोक निवासम अर्थात बिन प्रेम माया नहीं तथा बिन माया प्रेम नहीं और जब दोनों हो तभी वासना का वास होता है क्योंकि वासना ही प्रेम और प्रेम ही तंत्र अर्थात प्रेम ही सबसे सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि सर्वोच्च
वेशया क्योंकि वह ही एक असम्भव गाथा का अन्त व संभव है।।🔴 गाथा में वह डायन किस नाम से जानी जाती थी?
मगर वास्तविक में यह गाथा अनन्त से अन्त में होकर असंभव से संभव होकर अपनी आलौकाकता से अपनी योनि व चूत कि आसीमता को समाप्त कर अपनी नारित्व व स्त्रीत्व को कालचकृ में प्रवाहित कर शून्य होकर एक दृश्य रूप में आकर इस असंभव व अनन्त में होकर इच्छा व स्वार्थ में परिवर्तित होकर
जाग्रति कर रही इसका तात्पर्य यह है कि "इस माटी से पुतले द्वारा प्रत्येक कार्य हमारी आत्मा अर्थात परमात्मा के द्वारा ही संभव है मगर यह कालचकृ निरंतर चक्राणी भवानि भवन्तु दुखिना प्रयलयात्मक संकेत दिशानि भवा होने सा परमात्मा सा रूहम् विभकितश्रोत लिगश्रोथ जातिश्रोत सबकुछ शूनयमय की योनि व चूत में डाल उसके लन्ड को समाप्त तथा उसकी योनि व चूत को शूनयमय करके यह गाथा को कालश्रोथ जातिश्रोत लिगश्रोथ सबको शून्यम् दिखाकर यह साबित करना चाहते हैं कि यह गाथा अनन्त से अन्त में होकर संभव में असभव से हो चुकी है जिसकी स्मृतियों को उन्हें एक वैशया एक किन्नर एक नपुंसकीय आहुतिका आदि के रूप में रूपांतरण करके गाथा में प्रस्तुत किया और यह बताया कि हमारा शरीर किसी भी चीज का जिम्मेदार नहीं बल्कि अगर कोई जिम्मेदार है तो केवल एकमात्र विकल्प मैं ही हूं क्योंकि मैं ही परमात्मा होकर आत्मा जो कि उस परमात्मिका संग पहले ही सा बैठकुन्धाम सा गाऊ लोक निवासम अर्थात बिन प्रेम माया नहीं तथा बिन माया प्रेम नहीं और जब दोनों हो तभी वासना का वास होता है क्योंकि वासना ही प्रेम और प्रेम ही तंत्र अर्थात प्रेम ही सबसे सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि सर्वोच्च
वेशया क्योंकि वह ही एक असम्भव गाथा का अन्त व संभव है।।











#प्रश्नणावलीअकिंततासिभवन्तु⭕🔴🐦🐄🪔☝️
© सावरिया