...

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सोचो तो ज़रा!
रफ़्ता-रफ़्ता मर रही है इंसानियत,
इंसान को इंसान की परवाह न रही,

मोहल्ला फ़ख्र करता था जिस पे,
पाक़ उसकी भी अब निगाह न रही,

इंकलाब ले आते थे वो चंद अ'शार,
उनमें भी अब वो जज़्बा वो चाह न रही,

ईमानदार रहा रोटी रोटी को मोहताज़,
बेईमानी हुई आम, अब गुनाह न रही,

सरे राह कत्ल हो गई इक ज़िन्दगी,
हूजूम था,भीड़ थी मगर गवाह न रही,

अब तो कोई भी उजली राह न रही,
अफ़सोस, अब स्याही भी स्याह न रही,

शैतानी मख़लूक के सब दोस्त बन गए,
ऐ इंसान, अब तुझे ख़ुदा की भी पनाह न रही!

—Vijay Kumar—
© Truly Chambyal