रोटी
हाथ पैर कितना भी मार कर,
बस यही जान पड़ता है,
जहाँ खड़े थे कल,
दो कदम पीछे ही खड़े है आज।
इतना बेबस हूँ,
जिंदगी की उठा-पटक में,
कि अब तो इस हद तक समेट लिया है,
अपनी ख्वाहिसों की आसमां को,
कि घुटन सी होती है।
क्या कोई दो रोटी की चाह भी न रखे?
© prabhat
बस यही जान पड़ता है,
जहाँ खड़े थे कल,
दो कदम पीछे ही खड़े है आज।
इतना बेबस हूँ,
जिंदगी की उठा-पटक में,
कि अब तो इस हद तक समेट लिया है,
अपनी ख्वाहिसों की आसमां को,
कि घुटन सी होती है।
क्या कोई दो रोटी की चाह भी न रखे?
© prabhat