...

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रोटी
हाथ पैर कितना भी मार कर,
बस यही जान पड़ता है,
जहाँ खड़े थे कल,
दो कदम पीछे ही खड़े है आज।

इतना बेबस हूँ,
जिंदगी की उठा-पटक में,
कि अब तो इस हद तक समेट लिया है,
अपनी ख्वाहिसों की आसमां को,
कि घुटन सी होती है।

क्या कोई दो रोटी की चाह भी न रखे?
© prabhat