...

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ग़ज़ल
मुद्दतों जिसको भुलाने की क़सम खाता रहा
वो हमेशा इक नई शिद्दत से याद आता रहा

जिसकी टकराहट की चिंगारी से सब कुछ जल गया
ज़िंदगी भर मैं उसी पत्थर को पिघलाता रहा

ये अंधेरे बद - नसीबी के छटेंगे एक दिन
ये ज़रा सी बात मैं सूरज को समझाता रहा

मैं तो मुरझाकर ख़िज़ाँ के नाम हो जाता सनम
तेरी यादों का गुलिस्ताँ मुझको महकाता रहा

झूटी उम्मीदें, तसल्ली, चंद वादे खोखले
रोज़ बच्चों की तरह बीवी को बहलाता रहा



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