...

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दरख्त
दरख्त के क्या कहने ,
बीज से निकले ,
बौने के सिर बाज अब खड़े ।

तरुवर तट ,
छत्तीस हवाएं ,
धधकता सूरज ,
ओले की मालाएं ,
बिगड़ती बादल माताऐ ,
लालच की घनघोर जटाएं ,
वृक्ष ना अपना मोल बोल रहा है ।

स्वरूप परिवर्तन ,
एक सा परंतु जतन
ढाल,पठार,समतल,मरुस्थल ,
वृक्ष ना अपना कद तौल रहा है ।

पेड़ हो या हो जंगल ,
दोनो में जीवन खेल रहा है ।
दानी सदा से मौन रहा है ,
प्राणवायु का नेक दिया है ।

सायद अब कुछ तोल रहा है ,
जीवनरेखा देख बेचैन खड़ा है ।
अपनी या आपकी आंखे खोल रहा है ।

© Vatika