...

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"जागीर"


एक ग़लती और कर ली,
गुनाहों की टोकरी जब इश्क से भर ली।

वो ख़ुशी भी ज़ाहिर न कर सके मिलकर,
हमने रूठ कर भी हामीं भर ली।

फ़िज़ूल हुईं उनकी सौगातें सारी,
नम मिट्टी से जब हमने ज़मीं कर ली।

बदले पे उतर आए महबूब शाइस्ता,
ठोकरों से रौशन यूं हमने क़िस्मत कर ली।

बटोरो मेरे खून के कतरे वाणी,
बावफ़ा ने मेरे फ़ज़ल से जागीर कर ली।




© प्रज्ञा वाणी