...

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आशा
यह दुनिया है जनाब,
कभी न होगी बेनक़ाब।

एक चेहरा लेकर जो अंदर से दो-दो हो बैठे हैं,
दूसरों को ग़म देकर वो ख़ुद मस्त हो बैठे हैं।

क्या पालेंगे वो दूसरों को सताकर,
जब सब कुछ जीत कर भी न जीत सका सिकंदर।

इस दुनिया में आये हैं,
कुछ तो सहना ही पड़ेगा।
इस सुख दुख के दरिया में बहना तो पड़ेगा।

फिर भी किसी आशा में रहकर मन ये कहता है,
अकेले हैं मगर इस दुनिया से बेख़बर नहीं,
अंदर से टूटे जरूर है मगर बिखरे हुए नहीं,
मुरझाए है लेकिन ऐसा नहीं कि दोबारा खिलेंगे नहीं,
काँटों में रहकर भी हंसेंगे,
और एक बार फ़िर नयी आशाओं के साथ जरूर खिलेंगे।

© Musafir