...

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हम?
हालात से कुछ इस तरह जूझने लगे हम,
कि अब खुद को ही खुद में ढूंडने लगे हम।

वक़्त ने दिखाया शीशा जब भी हमको,
खुद को ही अजनबी की तरह घूरने लगे हम।

अब इसी तज़ुब्ज़ुब में गुज़र जाते हैं रात दिन,
खुद को मुनाफिक़ समझें या मुखलिस कहें हम?

अद्ल ने ज़ुल्म के आगे सर-खम कर दिया,
अब ठहर कर उसे देखें या चलते रहें हम?

वो शख्स फिरऔन बनने की ख्वाहिश रखता है,
मज़लूम बनकर झुक जायें या फिर मूसा बनें हम?
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