...

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कैसे टुकड़ों में जिया जाता है।
सुनो , चलो तुझे टुकड़ो में जीना सिखाता हूँ
क्या, नहीं सीखना?
ठीक है, केवल टुकड़ों में जीने की कला से परिचय कराता हुँ।

एक नन्हा बालक जब भूख से बिलबिलाता है,
माँ के पयोधर में भी जो,अमृत कम पड़ जाता है।
कमियों में पलकर भी वह,आंसू से भूख मिटाता है,
देखो टुकड़ों में पहली बार ऐसे ही जिया जाता है।

कुछ वर्षों के बाद जब बालक कदम बढ़ाता है,
पग में कांटे-कंकड़ गड़ते फिर भी बढ़ता जाता है।
कटे पतंग के पीछे भागता,पतंग टुकड़ो में पाता है,
टुकड़ों में बालकपन ऐसे ही जिया जाता है।

जाता है जब पढ़ने को तो मंद मंद मुस्काता है,
पाकर ज्ञान की पोटली को,फूले नहीं समाता है।
पर कपड़ों के फटे पैबंद को हाथों से छुपाता है,
विद्यालय में भी टुकड़ों में ऐसे ही जिया जाता है।

आगे बढ़कर लड़ता जग से,अपना अस्तित्व बनाता है
ठोकर खाता पग पग पर वह,मुंह के बल पटकाता है।
उठता फिर से झाड़ के खुद को,तन के टुकड़ों को सजाता है।
किशोरावस्था में भी देखो कैसे टुकड़ों में जिया जाता है।

हर्षित होता मन जब उसका,अवस्था युवा का आता है
संग चलकर प्रकृति के,जब किसी को रिझाता है।
कपट भाग्य का पाकर ,प्रेम भी टुकड़ों में पाता है,
यौवन भरा जीवन को भी,टुकड़ों में जिया जाता है।

जितना आगे लिखता जाऊँ,टुकड़ों का साथ भी बढ़ता है,
कोशिश करते पूर्णता की सब,पर टुकड़ों से जीवन चलता है।
टुकड़े ही आगे चलकर,पूर्ण स्वरूप बनाता है,
भय क्या?
जग में हर कोई,प्रारम्भ टुकड़ों से करता है।