ग़ज़ल
धुंधला गयी फ़ज़ाएँ ये कैसी हवा चली
मैं बुझ गया तो राख उड़ाती हवा चली
मुम्किन नहीं है यार मुझे अब समेटना
जब मैं बिखर गया तो सुहानी हवा चली
डूबा था क़तरा-क़तरा नज़ारों के रंग में
यूँ साथ-साथ पानी के बहती ...
मैं बुझ गया तो राख उड़ाती हवा चली
मुम्किन नहीं है यार मुझे अब समेटना
जब मैं बिखर गया तो सुहानी हवा चली
डूबा था क़तरा-क़तरा नज़ारों के रंग में
यूँ साथ-साथ पानी के बहती ...