...

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ग़ज़ल
धुंधला गयी फ़ज़ाएँ ये कैसी हवा चली
मैं बुझ गया तो राख उड़ाती हवा चली

मुम्किन नहीं है यार मुझे अब समेटना
जब मैं बिखर गया तो सुहानी हवा चली

डूबा था क़तरा-क़तरा नज़ारों के रंग में
यूँ साथ-साथ पानी के बहती हवा चली

मैं तो उलझके चाँद सितारों में रह गया
आँखों से मेरी नींद चुराती हवा चली

ख़ुशियों के जो चराग़ थे पहले ही बुझ गए
फिर आज किस लिए यहाँ ऐसी हवा चली

जब रोते-रोते दम ही सिमटने को चल दिया
तब मेरे आँसुओं को सुखाती हवा चली

कैसे बयाँ करूँ मैं वो रंगीन वाक़्या
गेसू खुले हुए थे सुहानी हवा चली


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