...

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ग़ज़ल
ख़ुद को बाँटता रहा हूँ मैं, झूठ की परत डाल कर।
ऊपर से अब बचा नहीं, भीतर से हूँ भरा हुआ।।

मंदिर के आसपास,न आ जाये मयखाना ।
पुजारी बाहर से हॅसता है, भीतर से है डरा हुआ।।

गाँव के टेड़े रस्तों की, मंजिल आँगन है।
शहर बाहर से फैला है,अंदर से है मरा हुआ।।

कोई दिल नहीं अब ,दिल की जगह पर।
ज़िस्म है चलता हुआ, जमीर है ठहरा हुआ।। रजनीश
© rajnish suyal

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