...

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ग़ज़ल


देखा जो इक नज़र तो, देखता ही रह गया
तेरे हुस्न पे ये आँखे, सेकता ही रह गया

था खुद पे ये ग़ुमा कि दिल, फिसलेगा ना कभी
इश्क़ की ज़ुबां के आगे, रेख्ता ही रह गया

असली और नकली में फर्क, न मालूम था मुझे
बुतपरस्ती मे माथा, टेकता ही रह गया

मयखाने जाके लोगों ने, महगी शराब लेली
सस्ता मै दूध घर घर, बेचता ही रह गया

रंगों को भी सियासत ने, बाँटा कुछ इस कदर
तिरंगे को मै अपने, समेटता ही रह गया

वीरान हो गया गुलशन, बहारें चली गईं
मै फुहारें पानी की, फेंकता ही रह गया



© GULSHANPALCHAMBA