...

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सरस्वती वंदना
हे, मां वाणी! अलख उतरो,  पुस्तकों में सभी के ,
तू , हाथों के कलम पर ही, सर्वथा "शाश्वती" हो !
शास्त्रों ,वादों ,कवि-विषय में, जीत ही हो हमारी ,
जिह्वा छोड़ो निमिषमपि ना , प्राण- सी तू प्रिया हो।
है ना कोई धन - चयन की साभिलाषा , सुखों की ,
इच्छा है - तो इस तरह से साधुओं - दर्शनों की ।
तेरी पूजा कर हृदय से,  हूं बुलाता हितों को ,

होवे मेरा मिलन उनसे - धेय है वंदनों का !!




    


© शैलेंद्र मिश्र 'शाश्वत'