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भीषण प्रकृति
रौद्र रूप लिया प्रकृति रानी ने। अतुलित संपदा लुटा दी उसने। घर के घर पतंग बन उड़ गये। वृक्ष सब के सब हिल गये डुल गये।
प्रकृति की इस कराल भीकर क्रीडा के कठोर चरणों पर। कितने ही जन, धन, वस्तु हुए अर्पण। कितने ही पशु पक्षी बह गये बल संपन्न।
बिछाई चटाई से हैं सब बगीचे। अभी अभी ढेर के ढेर लगे थे। धान अनेक खलिहानों में। देखते देखते सब वह गये वे।
बाग में खड़ा पेड़ कोई दीखता नहीं है। पड़ गया मब अकाल केलों का है। आमों का अन्य फलों का यही हाल है। खाद्य पदार्थों का भी अभाव है।
इन उजडे घरों में बहुते पानी में। इन भयंकर आंधी के झोंकों में। कहाँ खोजें अब छायेदार पेड़ यहाँ? काहाँ खोजें अब फलद पेड यहाँ?
बेघर द्वार के जन तडपते दाने-दाने को। ग्रास नहीं अब यहाँ कहीं गाय बैल को। पूजा करना चाहूँ तो फूल नहीं कहीं। नैवेद्य की बात दूर, मुझे खाने को फल नहीं।
आंधी आई कि नहीं बिजली बनी बेकाम की अंधेरा ही अंधेरा बढ़ गया सब कहीं।
न कोई बस चलती और न रेल। सडकें बह गयीं पटरियों उखड गई वायुयान बने मेघों में गये अटक। चह-चहाती चिडियों रह गयीं पेडों पर लटक।
उस अर्ध-रात्रि की काल रात्रि में। निकला मानव बसेरा ढूँढ़ने फँस गया जोर जोर के झोंकों में। न मिला सहारा और न रास्ता उसे।
हिलता डुलता मानव कहीं उड़ता सा, दीखता, पर कहाँ पर वह खडता ? जा के कराहते किसी से टकराता। अपनों को छोड़ बेबस मर जाता।
जहाँ जहाँ पानी होता नमकीन। होती नहीं झट वहाँ वहाँ फसल। बीज नहीं, खाद नहीं, उजडा खेत देख, आँसू बहाता किसान।
इस आंधी को आसरा मान, क्षुधित, वेबस जनों का पेट, भरना भूल, अपनी जेब भरने वालों को दी जाय क्या सजा ?
मई का महीना ढ़ो लाया महानाश, कई मुसीबतों का बनाया हमें शिकार। नाश इतना हुआ कि देश खड़ा, भीख माँगता दुनियाँ के द्वार।
© Kushi2212