...

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खुले मुँह की सीपी
उचटती नींद हूँ
धीमे सहलाओ मुझे
भरी हूँ ख्वाब से
टूट जाने का डर है
हौले से घरसो
होरसे पर चन्दन
खुशबु द्रुत है
छूट जाने का डर है
मधु उन्मुक्त है
टिपटिपाया है दोने से
ललसाई चींटीओ के
जुट जाने का डर है
खुले मुँह की सीपी है
तरस नेह बून्द की
अतुष्ट मोतियों के
रूठ जाने का डर है
पुरे चाँद की रात में
आधी रह गई बात
भनक चकोरों को ना हो
लुट जाने का डर हैै


© Ninad