"सांझ"
समझ-समझ का खेल है यह,
दो पहरों का मेल है यह,
'सांझ' जिसे सब कहते हैं,
रवीश मिलन संदेश है यह।
सुबह के थक घर आने से,
मेरे बहुत मनाने से,
बिन बाती का दीप जले,
लाली का विद्वेष सहे।
दो चकलों में पिसे ज़मीं,
मौन विरह संग रहे संयमीं,
परि के णाम की राह तके,
वाणी अन्त तक रोज़ ढले।
© प्रज्ञा वाणी
दो पहरों का मेल है यह,
'सांझ' जिसे सब कहते हैं,
रवीश मिलन संदेश है यह।
सुबह के थक घर आने से,
मेरे बहुत मनाने से,
बिन बाती का दीप जले,
लाली का विद्वेष सहे।
दो चकलों में पिसे ज़मीं,
मौन विरह संग रहे संयमीं,
परि के णाम की राह तके,
वाणी अन्त तक रोज़ ढले।
© प्रज्ञा वाणी