...

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मैं


मैं शब्द हूं मेरी निशब्द फिर क्यों मैं
मैं स्वयं में ही सब
सब मुझसे जुड़ें
क्या यह तन हूं मैं
या मन हू मैं
या इन सबमे उलझी उलझन हूं मैं
भटक रही हूं ये किस खोज में
क्यों हर रोज मैं
मैं हूं इस अहम में हूं
सब मुझसे है वहम् में हूं
यह जग कभी रुकता नहीं
फिर क्यों फसी उलझन में हूं

मैं आस्था मेरी विश्वास भी मेरी

मैं शब्द हूं मेरी निशब्द फिर क्यों मैं
प्रहसन में हूं विलाप में
किस शोक में संताप में
अब तक न जाना क्या हूं मैं
क्यों जग के नजरों के आस में
भटक रही अंतः मेरी
मैं तन हूं या मन हूं
या इनका वो संगम हूं
जो डीग नहीं सकता है
जीवन के किसी उलझन में
मैं आस्था मेरी विश्वास भी हूं मैं।




जारी है

© geetanjali