...

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तुम्हें भुलाऊं कैसे
मैं उन्हें भुलाऊं कैसे..
दिल में है, दिमाग में नहीं
ये बात समझाऊं कैसे..
वक्त का तकाज़ा है
वक्त मेरे हिसाब का
आखिर मैं बनाऊं कैसे..
तमाम उलझनों में भी
सुलझी हुई डोर है प्रेम की
उस डोर की छोर
तुम्हारे हाथ में
मैं थमाऊं कैसे ..
दिल में हो, दिमाग में नहीं
तुम ही कहो,
मैं तुम्हें भुलाऊं कैसे ...
-स्मृति
© स्मृति