...

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स्त्री जीवन ❤️
अपनों के बीच भी वो पराई है
कैसी ये विडंबना है
एक स्त्री की खुद से खुद की लड़ाई है
अपने अस्तित्व को वो न कभी ढूंढ पाई है
ना जाने कब इस जंग से होती उसकी रिहाई है

कहते हैं सब
टुकड़ा है बाबा के दिल का
तू अपनी माँ की परछाई है
फिर क्यूं साथ है ये कुछ पल का
क्यूं मिलती इसमें फिर जुदाई है

जिस घर ब्याही जाति है वो
उस घर की भी न कहलाई है
सागर की दो किनारों से बंधी
अपनों के बीच वो रहती पराई है
ना जाने कब इस जंग से होती उसकी रिहाई है
© mona