...

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न जाने क्यों...
दिल न जाने क्यों घबरा रहा है,
जैसे खुद से ही कुछ छुपा रहा है।
छा जाता है चेहरे के सामने कुछ अंधेरा सा ,
जैसे कोइ अपना मुझे सता रहा है।
न जाने कैसी खमोशी है यादो में,
न जाने कैसी सरोशी है सासों में ।
जैसे जागते हुए नीदों को कोई सुला रहा है,
और सोते हुए ख्वाबो को कोई जगा रहा है।
दिल न जाने क्यों घबरा रहा है,
जैसे खुद से ही कुछ छुपा रहा है।
अन्दर ही अन्दर ऐसी उफान है ,
जैसे सोते हुए सागर में चक्रवती तुफान है।
कभी-कभी चेहरा बेवजह मुस्कुरा रहा है,
कभी-कभी कुछ उदासी सा छा रहा है।
ये न जाने क्यों इतना रंग दिखा रहा है,
जैसे पिजडे में बैठी शांत चिडियां अब
आकाश की सैर करने ज रहा है।
दिल न जाने क्यों घबरा रहा है,
जैसे खुद से ही कुछ छुपा रहा है।
मैं इस भूलभुलैया में फसती जा रही हूं,
जितना चांहू सुलझना और जादा
उलझती जा रही हूं।
दिल को समझाऊं कैसे ,
ये कुछ समझ ही नही रहा है।
इस पे काबू पाउं कैसे ,
जो बेवजह धडकते जा रहा है।
दिल न जाने क्यों घबरा रहा है,
जैसे खुद से ही कुछ छुपा रहा है।
© Savitri..