...

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इंसान का सच
कुछ अजीब सा शहर है यह दुखों का कहर है
मैं चल रही हूं या रुक रही हूं कुछ समझ नहीं आ रहा मैं बून रही हूं या बूनी जा रही हूं
दोस्तों का मेला फिर भी दिल अकेला है
कई बार जफाओं को झेला है।
अब तो रुक जाओ कितनो को दगा दोगे कभी तो इंसानियत की खाल में आओ कब तक जानवर बने रहोगे।
पैसों की दुनिया में इंसान भी रहते हैं कभी कभी आसमानों से भगवान भी कहते हैं
मैंने तुझे बनाया इंसानियत के लिए तूने कर दिया सब को अलग अपने पैसों की हैवानियत के लिए
तू इंसान नहीं हैवान है तू बनने नहीं लायक भगवान का भी मेहमान है।
मर कर भी तू कहां जाएगा तू जिंदगी से पहले ही मर जाएगा
तु मरा मरा सा‌ तू डरा डरा सा तू जिंदगी से फंसा फंसा सा ही रह जाएगा।
बच जा तू अभी भी समय है मौत से नहीं तू जिंदगी से भी परे हैं।
यह जिंदगी नहीं जो दूसरों को डराती है ये जिंदगी नहीं जो दूसरों को दुख पहुंचाती है ।यह जिंदगी नहीं जो ,खुशी को नहीं दुख को पनाह दिलाती हैं
पढ़ा-लिखा होकर भी तू अनपढ़ कहलायेगा बच जा तू डरा डरा सा, फसा फसा सा ही रह जाएगा।