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आधुनिकता के शिकार
ना कोई ठौर ना ठिकाना, ना ही घर द्वार है,
किसी काम के नहीं हम, ना कोई रोज़गार है।
मोबाईल ही अब ज़िन्दगी, मोबाईल ही संसार है,
कैसे कह दें हम, हुए आधुनिकता के शिकार हैं।


रहते हैं जमीन पर, बात करते हैं आसमानी,
बालों को डाई करते, हाथों से फिसलती जवानी।
हक़ीक़त नगण्य, पर दिखावा अपना बेशुमार है,
कैसे कह दें हम, हुए आधुनिकता के शिकार हैं।


हम कुछ नहीं जानते, सच्चाई भी नहीं मानते,
अपनी औकात को हम, किंचित ही पहचानते।
होंठों पर राम का नाम, पर मन में व्यभिचार है,
कैसे कह दें हम, हुए आधुनिकता के शिकार हैं।


निज पिपासा शांत हेतु, बीच बाज़ार लूट गये,
आधुनिकता की दौड़ में, साथ सभी के छूट गये।
ना कोई पश्चाताप है मन में, ना हृदय में प्यार है,
कैसे कह दें हम, हुए आधुनिकता के शिकार हैं।


मातृ पितृ दिवस मनाते, कविताएँ खूब सुनाते,
अपनी काली कमाई को, लोगों के बीच लुटाते।
बेटे का धर्म भूल गया, घर में माँ बाप लाचार हैं,
कैसे कह दें हम, हुए आधुनिकता के शिकार हैं।


अपनी सभ्यता संस्कृति, सब कुछ हम भूल गये,
पाश्चात्य सभ्यता की, टहनी पकड़ हम झूल गये।
प्रणिपात ना सलाम, ना प्रणाम ना नमस्कार है,
कैसे कह दें हम, हुए आधुनिकता के शिकार हैं।


पड़ोसियों की देखा देखी, हाई फाई व्यवहार किये,
अपनी चादर से बाहर, अपने पैरों को पसार दिये।
आ गये हम सड़क पर, सब लूट चुका संसार है,
कैसे कह दें हम, हुए आधुनिकता के शिकार हैं।

© 🙏🌹 मधुकर 🌹🙏