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गम के भँवर
भागे ख़ुद से तो ग़म के भँवर आ गए
ख़ामुशी के ये कैसे नगर आ गए
माज़ी सोचें बहुत उलझने ही मिली ,
बस दबी लाशों को ख़ोदकर आ गए,,
सोचतें हैं कि सोचेंगे, कुछ भी नही
बैठे तन्हा फ़क़त सोच कर आ गए,,
आंखें थी तब झुकी कुछ पशेमानी थी
तब समंदर से वो आँख भर आ गए,,
महफ़िलों में बने लाश फ़िरते हैं वो
भीड़ से भी गुज़र बेख़बर आ गए।
ज़िंदगी बोझ थी चलना मुश्किल सा था
बोझ के नीचे खुद के ही सर आ गए।
जीना ऐसे ही है और जीना नहीं
मारा खंज़र को बस रब के घर आ गए,,
*विकास जैन व्याकुल*
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