...

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तुम, मैं
पग-पग बढ़ाऊँ तुम्हारी ओर
यूँ लगे जैसे खुद को खो रही हूँ।
तुम तक पहुँची नहीं हूँ लेकिन
खुद से दूर हो रही हूँ।

यह प्रेम भी बड़ा विचित्र है,
अजीब तरह के छलावे देता है;
दिखाकर स्वप्न आकाश का,
मुझसे धरातल भी छीन लेता है।

धीरे-धीरे, कण-कण मेरा
मुझसे छिनता जा रहा;
खाली हो रही मैं हर पल,
सब तुममें मिलता जा रहा।

अंतिम पग– कुछ रहा न शेष,
मैं पूरी तरह खत्म हो गई।
रहे तुम भी न लेकिन,
क्योंकि अब तुम ही मैं हो गई।

~ अनिशा

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© Anisha