महामारी।
औपचारिकता गले लगाने की,
बनी जब आशीष की मजबूरी,
तन से तन तो मिले पर बढ़ गई
मन से मन के देश की दूरी ।
सोता गया बिलासिता की शैय्या,
मानव भौतिक मोह की निद्रा में
लदे स्वप्न उनकी पलको पर,
भीषण महामारी की मुद्रा में।
विस्मित विश्व समझ पाया ,
अब भारत का वैदिक अर्थ,
जब अक्षम हुआ रोकने में,
हो रहे धरा पर अति अनर्थ।
मन से मन को ज्योतित कर,
होती सदा आत्म तत्व की खोज,
काया से काया रहे दूर भली,
वियोग भरा पावन प्रेम का ओज।
धारण कर विश्व कल्याण का धर्म,
मुख रख पट की ओट दिगम्बर,
विमल प्राण - वायु हेतु जीव - दया - बहाने,
विहसे वसुमति,उन्मुक्त खुले अम्बर।
सूझा ना उपाय कोई दूजा कहीं,
रामबाण बनी भारत की संस्कृति,
वासना जनित - चुम्बन को भूल ,
करबद्ध खड़ी समूची संसृति।
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