...

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मजदूर
*जिसके सहारे से बनी ये इमारतें उसी के मेहनत से ये घर है*
*जिसकी मेहनत से निकलते हैं रास्ते उसी की मेहनत से सर पर छत है*
*होता नहीं जो राहगीर वो मुफलिसी से मजबूर होता है*
*थोड़ा स्वावलंबी थोड़ा सा स्वाभिमानी वो मजदूर होता है*

कहानियां गढ़ी जाती हैं किरदार बनते है
इस जहां में भी अजब गजब स्वभाव बनते हैं
खड़े होते हैं महल कुछ आवास बनते हैं
कभी बनती है सड़क कभी विद्यावास बनते हैं

कहीं बनते हैं राजा कहीं रंक ए ख़ास बनते हैं
कहीं बनते हैं सिपाही कहीं दरबान बनते हैं
कहीं होती है खुशी कहीं उपहास बनते हैं
कहीं होता है दुख कहीं सुर्ख अहसास बनते हैं

इतने सारे किरदार के होते एक मजदूर होता है
करता रहता है मेहनत वो थोड़ा मजबूर होता है
अपने बच्चे अपने परिवार की खातिर वो कहां सोता है
रूखी मिलेगी या सुखी उसका क्या नसीब होता है

परिश्रम करके करता है गुजारा हां वो मजदूर होता है
नाम होता है कारीगरों का हर सामान मजदूर ढोता है
हां होता है थोड़ा गरीब वो पर न कभी अहम में चूर होता है
वास करती है इंसानियत उसमे वो अपनी मेहनत में मशगूल होता है

आब-ए-चश्म को पीकर हर दुख संजोता है
चाहे हो कोई भी मौसम उसे कहां चैन होता है
चाहे सर्दी हो या गर्मी वो हर पल बेचैन होता है
हां मजदूर दुनिया में क्यों मजबूर होता है

करता है बखूबी मेहनत फिर क्यों वो भूखा ही सोता है
होता है स्वावलंबी मेहनत से सपने संजोता है
हां ऐसी ही किरदार ए मजदूर होता है
मुफलिसी के कारण जो अपनी मजबूर होता है


© Akash Raghav
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