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कल-कल करता
कल की बातें हर-पल करता, आज को देखो कल-कल करता
कितना अजब खेल मानव का, प्रेम बिना जीवन हल करता
स्तुति करता, कल से डरता, कल के खातिर आज को हरता
इज़्जत, शोहरत, धन के वश में, पल-पल वो घुट-घुट के मरता
शाम सवेरे झूठ-मूठ की, चादर ओढ़े दर-दर फिरता
ख़ुद का कफ़न, बनाकर साथी, ख़ुद का मैला दामन करता
सूरज जैसे घटता-बढ़ता, अहंकार की चोटी चढ़ता
बौराया, भौंरे जैसे वो, मोंह के पीछे भागा फिरता
सुख में पागल दुःख को भूला, बात-बात पर आग बबूला
ढूंढ रहा मृग कस्तूरी को, वन-वन में वो ख़ुद को भूला
दीप्ति प्रज्वलित जो है भीतर, उसको नहीं बढ़ाता है
रंग छुपाने को फीका वो, नया रंग अपनाता है
पड़ जाएगा वो भी फीका, सत्य सूर्य की आभा से
चोखा रंग प्रेम जीवन का, क्यों तू नहीं लगाता है
उसको ढूंढें मन्दिर-मस्जिद, ख़ुद का घर खाली-खाली
कैसी माया में है उलझा, वो करता सबकी रखवाली
सिर्फ़ मौन की भाषा जाने, कैसे उसे रिझाना है
वो तो हरदम से तेरा है, फिर क्यों उसे मनाना है
अंहकार को शरणागत कर, उस अकाल के चरणों में
चलते-चलते आगे बढ़कर, बस उसमें मिल जाना है ...
© Er. Shiv Prakash Tiwari
कितना अजब खेल मानव का, प्रेम बिना जीवन हल करता
स्तुति करता, कल से डरता, कल के खातिर आज को हरता
इज़्जत, शोहरत, धन के वश में, पल-पल वो घुट-घुट के मरता
शाम सवेरे झूठ-मूठ की, चादर ओढ़े दर-दर फिरता
ख़ुद का कफ़न, बनाकर साथी, ख़ुद का मैला दामन करता
सूरज जैसे घटता-बढ़ता, अहंकार की चोटी चढ़ता
बौराया, भौंरे जैसे वो, मोंह के पीछे भागा फिरता
सुख में पागल दुःख को भूला, बात-बात पर आग बबूला
ढूंढ रहा मृग कस्तूरी को, वन-वन में वो ख़ुद को भूला
दीप्ति प्रज्वलित जो है भीतर, उसको नहीं बढ़ाता है
रंग छुपाने को फीका वो, नया रंग अपनाता है
पड़ जाएगा वो भी फीका, सत्य सूर्य की आभा से
चोखा रंग प्रेम जीवन का, क्यों तू नहीं लगाता है
उसको ढूंढें मन्दिर-मस्जिद, ख़ुद का घर खाली-खाली
कैसी माया में है उलझा, वो करता सबकी रखवाली
सिर्फ़ मौन की भाषा जाने, कैसे उसे रिझाना है
वो तो हरदम से तेरा है, फिर क्यों उसे मनाना है
अंहकार को शरणागत कर, उस अकाल के चरणों में
चलते-चलते आगे बढ़कर, बस उसमें मिल जाना है ...
© Er. Shiv Prakash Tiwari
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