...

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महामारी लगी थी
महामारी लगी थी

घरों को भाग लिए थे सभी मज़दूर, कारीगर.

मशीनें बंद होने लग गई थीं शहर की सारी

उन्हीं से हाथ पाओं चलते रहते थे

वगर्ना ज़िन्दगी तो गाँव ही में बो के आए थे.

वो एकड़ और दो एकड़ ज़मीं, और पांच एकड़

कटाई और बुआई सब वहीं तो थी

ज्वारी, धान, मक्की, बाजरे सब.

वो बँटवारे, चचेरे और ममेरे भाइयों से

फ़साद नाले पे, परनालों पे झगड़े

लठैत अपने, कभी उनके.

वो नानी, दादी और दादू के मुक़दमे.

सगाई, शादियाँ, खलियान,

सूखा, बाढ़, हर बार आसमाँ बरसे न बरसे.

मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है.

यहाँ तो जिस्म ला कर प्लग लगाए थे !

निकालें प्लग सभी ने,

‘ चलो अब घर चलें ‘ – और चल दिये सब,

मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है !
© saloni