...

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पहेली सी तुम..
भीड़ में रह के भी तन्हा अकेली सी तुम,
कोई अंजानी अनसुलझी पहेली सी तुम.

उफ अपने ही आप में खोई हुई है,
थोड़ी जागी तो, थोड़ी सोई हुई है.
खुशी नही, मुकद्दर में लिखी हुई,
दिल में दर्द की फसल बोई हुई है.
नसीब की मारी, खाली, हथेली सी तुम.
कोई अंजानी अनसुलझी पहेली सी तुम.

तुम्हारे आंसू कौन ? देख पाता है,
तुम्हारा दर्द, किसे, नजर आता है.
तुमने तो सीखी है ये भी कारीगरी,
तू तो दर्द हंसी के पीछे छुपाता है.
जहां के नज़र में पर, अलबेली सी तुम.
कोई अंजानी अनसुलझी पहेली सी तुम.

बुझे दिल में खुशी का तारा नही है,
किसी भी अपने का सहारा नही है.
कट रही है जिंदगी बस ऐसे तैसे ही,
डूबती कश्ती का तो किनारा नही है.
एक मुद्दत से तो विरान हवेली सी तुम.
कोई अंजानी अनसुलझी पहेली सी तुम.

© एहसास ए मानसी