ज़िम्मेदार लोगों की व्यथा कथा
लोगों की अपेक्षाओं का बोझ ढोते
मेरी चाहतें, मेरे सपने कहीं दब गए
परिस्थितियों के पीछे खुद को ढालते
जाने हम बड़े हो कैसे और कब गए
जरूरतों ने धक्का मार के छुड़ाया घर
नौकरी की तलाश में हम ने बदले शहर
सोचा था लौटूंगा जल्द ही सपने पूरे कर...
मेरी चाहतें, मेरे सपने कहीं दब गए
परिस्थितियों के पीछे खुद को ढालते
जाने हम बड़े हो कैसे और कब गए
जरूरतों ने धक्का मार के छुड़ाया घर
नौकरी की तलाश में हम ने बदले शहर
सोचा था लौटूंगा जल्द ही सपने पूरे कर...