...

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ज़िम्मेदार लोगों की व्यथा कथा
लोगों की अपेक्षाओं का बोझ ढोते
मेरी चाहतें, मेरे सपने कहीं दब गए
परिस्थितियों के पीछे खुद को ढालते
जाने हम बड़े हो कैसे और कब गए

जरूरतों ने धक्का मार के छुड़ाया घर
नौकरी की तलाश में हम ने बदले शहर
सोचा था लौटूंगा जल्द ही सपने पूरे कर
हालातों ने मगर फिर भटकाया दर-ब-दर

रोटी,कपड़ा और मकान बस इतनी थी चाहतें
बदला रूप मांगे अब पैसा, बंगला, मोटर कार
बढ़ती रही फरमाइशें मिली ना फिर कभी राहतें
घर की ओर जब बढ़ाए कदम रुक गए हर बार

खूब कमाई मैंने दौलत, रुतबा, पद और नाम
सुकून का एक पल मगर कभी मैं जी ना पाया
उनके हुए सपने पूरे मिला हर सुख,चैन,आराम
अपने ख़्वाबों के संग मैं ख़ुद को भी दफना आया
© agypsysoul
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