...

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वतन परस्त
हमको भी पाला था मां बाप ने
दुःख सह सह कर
हम भी आराम उठा सकते थै
घरों पर रह कर
वक्ते रुख्सत इतना भी
न आए कहकर
गोद में आंसू जो टपके
कभी रुख़ से बहकर
तिफ्ल उसको ही समझ लेना
जी बहलाने का
अब तो देश सेवा का ही
बहता है लहू नस नस में
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़
के गढ़ की कसमें
सरफरोशी की अदा होती हैं
यूं ही रस्में