...

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सच्चा
सुबह सबेरे
बैठी मैं सोच रही थी
परतों को खरोच रही थी
सच कितना सच होता है ?
अनगिनत परतों का मत होता है ?

परम सत्य क्या है
क्या रोज पूरब से उगते देखा है
या पश्चिम में ढलते देखा है
जिसका कहे सुने में है इतना बोलबाला
सत्य क्या वास्तव में सच होता है

मन के खिलौनों का भ्रामक बस मत होता है ?
परिवेश का परिधान है ?
या स्वछंद बिखरा आसमान है?
मोह रूपी प्रेम है?
या दिमागी game है ?

सत्य या एक पक्ष ये भी था
प्रकाशित हो जाए तो मस्त है .......
सोच तो मैं निर्मोह रही थी
छनिक लोभ खड़ी थी
किन लोगो ने सत्य की ख़ोज की थी

सत्य की ख़ोज बाकी है
प्रथम अपनी लंगोट बाकी है ।
© Vatika