...

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अपने
मासूम सूरत ,
मीठी जबान ,,
वे अपने ,
थे जो भयावह सपने ,,
करते थे कलरव मिठास में ,
प्रतिबिंब दिखता था कटार में ।

छप्पर तले हम रहते थे ,
आता देख किरणों का गोला ,
संवेदना की बातें वे कहते थे ,
कमी सही ,
पर ईमान बढ़ा हमारा वे कहते थे ।

गर्मी आई जब जोर लगा ,
सपनो का तब मोल लगा ,
बरतनों को जब तोल दिया ।
आसमान ना संभव था ?
ना ना ना ना !
दृढ़ता से फिर कदम बढ़ा ,
अंततः तो कलरव हुआ ।

फल चखा ,
आनंद हुआ ,
रिस्तो में अर्पण हुआ ,
हमें न दंभ हुआ ।
गर्मी भी चखी,
हलाहल भी चखा ,
रीढ़ का ना प्रत्यर्पित हुआ ।।

कंटक धसा,
कलंक ना टिका ,
किए का पारिश्रमिक मिला ,
पंख लगा मन क्षितिज को बढ़ा ।
कौन फिर दीवार बन सका ?

© Vatika