...

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ज्यादा कहा बदली हूं?
न जाने क्यों लगता है
कुछ बदल सी गई हूं मैं
कुछ ख्वाशियें डर
तो कुछ डर ख्वाशियें बन गई है

जिस अंधेरे से डरकर
दूर भागा करती थी
आज उसी अंधेरे में बैठ कर
दूरियों की वजह ढूंढती हूं

ऐसा लगता है न जाने क्यों
की कुछ बदल सी गई हूं मैं
तब कईं सारी चीज़ों में खुशियां थी
आज खुशियों में कईं सारी चीज़ें है

तब की multiplication से घबराने वाले हम
आज powers के problems solve करती हूं
तब की खिलखिलाकर हसने वाली मैं
आज मुस्कुराहट की variations पढ़ती हूं

शायद पता है मुझे की क्यों
कुछ बदल सी गई हूं मैं
तब जो न हासिल होने का गम था
आज वो खो देने का डर बन गया है

तब भोली भाली चोर बना करती थी
आज शातिर शरीफ इंसान दिखती हूं
तब छोटी छोटी बातों में खुशियां हुआ करती थी
आज छोटी छोटी खुशियों में बातें होती है

ज्यादा कहा बदली हूं मैं?
© Sabita