...

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बनारस
ज़मीन-ओ-आसमां है ऐसा आबदार तेरा,
रूह साफ़ करता है ऐ बनारस, दीदार तेरा.

बनती है संवरती है, गंगा में अक्स देखकर
कि हर सुबह को है ऐ बनारस, इंतज़ार तेरा.

ये दैर-ओ-हरम, शिवाले तो हैं ताजदार तेरे,
आरती के दीयों की झिलमिल है गुलहार तेरा.

दयार-ए-रुख़्सती है ये शहर कई ज़मानों का,
जो राख भी बना तेरे भीतर वो है कर्ज़दार तेरा.

जहां सुकून से तर-बतर है हवाएं सारनाथ की,
वहीं सहर-ओ-शाम के जमघट, है त्योहार तेरा.

'ज़र्फ़' बयां करें क्या तारीफ़ में जो पहले न हुईं,
कि तेरी पायंदगी पर है फ़िदा ये ना-पायदार तेरा.
© अंकित प्रियदर्शी 'ज़र्फ़'

आबदार - प्रतिष्ठित, सम्मानित, पानी से भरा (respected, watery)
अक्स - प्रतिबिंब (reflection)
ताजदार - राज करने वाला, मुकुटधारी (one who wears the crown)
दैर ओ हरम - मंदिर और मस्जिद (temples & mosques)
दयार ए रूखसती - विदा लेने का दरवाज़ा, वो स्थान जहां से जाया जाए (door/place of departure)
पायंदगी - स्थिरता, सदा बने रहने का गुण (permanence, resilience)
ना पाएदार - अस्थिर, सदा न रहने वाला (non permanent, unstable)
कहा जाता है कि "तीन लोक से मथुरा न्यारी", पर मुझे लगता है की ये कहावत काशी पर ज्यादा अच्छी लगती है. लोगों का व्यवहार, चहल पहल, खान पान, इस शहर को शहर नहीं, बल्कि एक विशाल मेला बना देता है, जिसमें आने वाला व्यक्ति, अपने जीवन के हर दिन यहां की स्मृतियों का आनंद लेता रहता है.
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