...

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ग़ज़ल- बदनाम
वो दूर हैं हमसे कि हम बदनाम बहुत हैं
कौन बताए कि हम पर झूठे इल्ज़ाम बहुत हैं

उन्होंने ज़िक्र न किया कभी तो क्या हुआ
समझने को तो उन आंखों का पैगाम बहुत है

छोड़ने को तो छोड़ देते हम सारे ऐब अपने
उनकी अदालत में ज़मानत के दाम बहुत हैं

बड़े मशहूर हो गए हैं वो तो हो जाने दो
पहचान को उनकी एक हमारा नाम बहुत है

हो सकती थी सुलह कोशिश ही न की हमने
कि हम भी तो अपनी अना के गुलाम बहुत हैं

अच्छा-खासा कर लेते हैं नाटक मसरूफ़ियत का
तुम्हारे ख़यालों के सिवा हमें और भी काम बहुत हैं

जाएंगे घर रुको ज़रा इतनी जल्दी क्या है
कि अभी तो बाकि मयखाने में जाम बहुत हैं


© random_kahaniyaan