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एक प्रार्थना
एक प्रार्थना

अस्तित्व पर उनके प्रहार करों न
जीवन में ये अपराध करों न
कण-कण में जो रमें है बंधु, उनसे खुद दूर करों न।।

काल्पनिक है यदि कथा भी उनकी
तुम आदर्श स्वीकार करों न
कौन कहता उनकी पूजा करों तुम, पर उनके नाम का जिक्र करों न।।

वक्त बदल रहा धीरे-धीरे
मूल्यांकन स्थिति का थोड़ा करों न
समाप्त हो रही दया-धर्म अब, अपने ईश्वर का थोड़ा ध्यान करों न।।

सदा नैतिकता की परीक्षा होती
शांति से अपने काम करों न
धूर्त, चालाक सदा बच निकलते, स्वार्थ का उनको प्रतीक कहो न।।

अधर्म की सूली सरल ही चढ़ते
इस बात पर अमल करों न
कुंठा ग्रस्त हो रहा है मानव, स्वयं को बदलने का प्रयास करो न।।

सहनशीलता खो रही सबकी
वाणी को अपनी काबू करो न
काम, क्रोध में हो रहे अंधे, हर किसी पर विश्वास करो न।।

मात-पिता वृद्धाआश्रम जाते
जरा अकेलापन उनका याद करों न
एकल परिवार का चलन बढ़ा है, अवसाद के शिकार तुम उन्हें कहो न।।

सफल होने की जैसे हौड़ लगी है
बुरा बच्चों पर असर कहो न
रिश्ते-नाते खत्म हो रहे, जज्बातों की इसे कमी कहो न।।

नशा, मोबाइल की लत है बुरी
किताबों से उसको दूर कहो न
सेवा-समर्पण की क्या उम्मीद है उनसे, प्रणाम की भी आश करो न।।

दंगे-फसाद में उलझे रहते
इससे कोर्ट-कचहरी की चांदी कहो न
अगले पल जाने क्या हो जाएं, इसे हर स्थिति में स्वीकार करो न।।

हां में हां जो कहना सीख लो
मुसीबतों से खुद को दूर करों न
माफ़ी मांग थोड़ा बचकर निकालो, जो जैसा उसे स्वीकार करो न।

स्वर्ण युग ये धर्म का बंधु
मुक्तहस्त इसे स्वीकार करों न
मान-आदर्श, संस्कृति ख़त्म हो रही, इस परिवर्तन स्वीकार करों न।।

धर्म की लहर जो बह रही बंधू
प्रभु का इसे वरदान कहो न
आख़िरी वक्त है धर्म शिखर का, अब इसके बाद की उम्मीद करों न।।

आशा-निराशा में बदल है जाती
अध्ययन थोड़ा इसका करों न
धर्म के नाम जो रक्तरंजित होते, उनसे धर्म रक्षा की फिर उम्मीद करों न।।

आख़िरी श्वास जो गिन रहा बंधु
उसके साथ तुम आज रहो न
याद करोगे फिर इस वक्त को, अभी इससे ख़ुद को दूर करो न।।