...

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रूह।
पूरी कायनात
लगी जब साथ-साथ
मंजिले-मुकद्दर लग गई हाथ
जमात-ए-रूह की
रही यह सौगात,
फिर जी लूँ कैसे
कर खुद से अलग इन रूहों को
जले जो तिल तिल
मुझ अदने रूह की खातिर
बिसरा कर अपनी औकात।।
वह दिन और वह रात
चस्पां हैं मष्तिष्क और मन पर
हर रूह सह हर सितम
वक्त का अपने तन पर
मुझ रूह की खातिर
कर दिया निसार अपनी हर स्मित
फिर इन रूहों से दूर हो लूँ
कैसे कर सकता यह ख्याल
इन रूहों से हो अलग
क्या सज्जा मैं जो करूँ होगी
न उनके सपनों पर आघात।।
एक रूह की खातिर
कैसे इन रूहों को वार दूँ
क्या यह सरल सहज है
कि इस तरह अपने जमीर को मैं मार दूँ।।
✍️राजीव जिया कुमार,
सासाराम, रोहतास, बिहार।।
Love you The Dearest.
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© rajiv kumar