दस्तक नए कल की...
बदलाव से घबराता मन
पुरानी ढर्रे पर चलने में
सुख ढूंढता ये मन
हर नया मंज़र
लेकर आएगा कुछ नए अहसास भी
ठहर नहीं पा रहा
जाने क्यों ?
बीते लम्हों से साँसें बांधे बैठा मन
चल तो खोल दरवाज़े
आने वाले कल के
क्यों माजी़ के
निशान सहेजता मन
मौजूदगी का शोर मचाना ज़रूरी नहीं
ग़ैर -मौजूदगी को शोर बनने दे
बंदे का हुनर ढूंढता चला आता है
दस्तक आने वाले कल की
रुककर सुन तो ऐ मन...
© संवेदना
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