...

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रूठी रूठी ज़िन्दगी
रूठी रूठी ज़िन्दगी तुझे मनाऊँ कैसे,
तू ही बता ऐ ज़िन्दगी तुझे बहलाऊँ कैसे।

दर्द बे-हिसाब दिया तूने,
तू ही बता इसका हिसाब लगाऊँ कैसे।

अब तो नासूर बन चूके हैं ज़ख़्म,
इस रिसते ज़ख़्म को छुपाऊँ कैसे।

तू ही बता ऐ ग़म-ए-ज़िन्दगी,
अपने ज़ख़्मी हाथों से इसे सहलाऊँ कैसे।

बरदाश्त से बाहर हो गया है दर्द,
तू ही बता ऐ रूठी रूठी ज़िन्दगी तुझे समझाऊँ कैसे।

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