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नाटक करते -करते आदमी खुद ही नाटक हो जाता है ।
ईर्ष्या, आलोचना , भेदभाव , धोखाधड़ी , बेईमानी और अन्याय सब दिख जाते हैं, सब प्रकट हो जाते हैं, कुछ भी छिपा नहीं रहता, तुम्हारा शरीर ही गवाह बन जाता है इन सब चीजों का कि तुम हो ऐसे, कुछ भी अदृश्य नहीं रहता, सब सामने आ जाता है, जो भीतर घट जाता है वही बाहर प्रकट हो जाता है। जब तुम्हें खुद को दूसरों में ये सब चीजें दिख जाती है, तो क्या दूसरा तुम में ये सब चीजें नहीं देख पाएगा ? बस तुम यहीं आकर चूक जाते हो, और सोचते हो सब सही चल रहा है । हम होशियारी करे चले जाते हैं और मीठे बने चले जाते हैं ,यह सोचकर कि अगला व्यक्ति अभी तीसरी क्लास का बच्चा है, बुद्धू है, लेकिन ऐसा सोचने वाला आदमी खुद अभी बुद्धुओं का बुद्धू है , उसे अभी जीवन की कोई समझ नहीं, बेचारा है ऐसा आदमी, दया करनी चाहिए अभी उस आदमी पर, नाटक करते -करते आदमी भी नाटक ही हो जाता है, धोखा देते-देते आदमी भी धोखा ही हो जाता है, ऐसा आदमी खण्ड-खण्ड में बंट जाता है, कृष्ण कहते हैं - ऐसा आदमी कहीं का नहीं रहता ।
© 🌍Mr Strength