...

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कली हो तुम
कल-कल करती सरिता सी तुम ,
मेरी नज़्म बन रही हो ,
मंद-मंद मुस्कान लिए मन
मग्न कर रही हो ,
अपने बदन की भीनी-भीनी ख़ुश्बू से
गुलशन तर कर रही हो ,
रूख हवाओ का पाकर
क्यों इतराती हो ,
स्वच्छ हो निर्मल हो फिर
अपनी अदा से क्यों सबको
बहकाती हो ,
इतनी विलीन हुई तुझमें मैं
कि इक लफ़्ज भी न निकल
सका लबों से ,
और नीरव से छाए होठों पर
कई शब्द बिखर गए ,
तुम सुकोमल अधखिली नाज़ुक हो ,
जो मेरे मन की बगिया में
रोज खिलती हो ,
आज सुबह ही तुम मेरे गुलशन में
मुझे मिली हो ,
हाॅ तुम मेरे बगिए की इक नन्हीं
कली हो । S.S.
Sarita Saini
© Lafz_e_sarita

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