...

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उनकी याद..
मैं तो बेफ्रिक होकर सोती हूं
अंधेरों में ..
पर क्या करू उनकी याद
आ ही जाती हैं,
रात की तन्हाइयों में तो
रूला ही जाती हैं।
मैं तो केवल हंसना जानती हूं,
दिन के उजालों में अपना किरदार
बख़ूबी निभाया करती हूं।
पर क्या करू उनकी याद,
चेहरे का रंगत उड़ा ही जाती हैं।
मैं अपना मंज़िल ख़ुद चुना करती हूं
रास्तों पर भी अपनी मंज़िल,
की ओर ही चला करती हूं।
पर क्या करू उनकी याद,
मुझे शमां बना ही जाती हैं...