...

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कुछ नहीं मेरे पास, फिर भी बहुत कुछ है...!
मेरे पास बहुत कुछ है...
शाम है बौछारों से भींगी हुई..
जिन्दगी है -नूर से तपती हुई...
और "मैं" हूं "हम"के झुरमूटों
से घिरा हुआ...
हम से क्या छिन लोगे??
शाम को दूर कहीं कोठरी में छिपा सकोगे?
जिन्दगी के नूर को मिटा सकोगे,?
मैं को हम से अलग कर सकोगे,?
जिसे मेरा कुछ नहीं कहते हो...
उसमें मेरे जीवन का साज है...
मेरे पास बहुत कुछ है....
तुमसे दूर रहने कि विरह...
सवेरे से शाम तलक
तुम्हारी यादों का संग्रह...
दिल में तुम्हारे प्रेम कि चाह...
आंखों में तुम्हारे आने कि राह...
क्या मुझसे ये छिन सकते हो??
दूर रहते हुए विरह को मिटा सकते हो,?
यादों के संग्रह को दूर छिपा सकते हो,?
दिल में जलते हुए प्रेम के
दिए बुझा सकते हो,?
आंखों से आने कि राह
छिन सकते हो,?
मेरे पास बहुत कुछ है,
और जिसे तुम कुछ नहीं कहते
उस नहीं कुछ में भी
"बहुत कुछ"है.....!