देख लो ख़ुद
वो जो दरख़्त खड़ा है।
चुपचाप हमेशा रहता है।।
शाखाएं क्यों न कट जाए।
फल-फूल कोई भी ले जाए।।
गिले-शिकवे कभी न करता है।
देकर प्रतिदान नहीं मांगता है।।
नि: स्वार्थ सेवा सब का करता है।
राहगीर जो आता छाया पाता है।।
पतझड़ में भी मायूस न होता है।
एक उम्मीद पर खड़ा रहता है।।
आश्वस्त हैं, बहारें फिर आयेगी।
पुन: उसे हरा-भरा कर जायेगी।।
बसन्ती हवा का स्पर्श पाकर वह।
फिर से लहलहाती नज़र आयेगी।।
चुपचाप हमेशा रहता है।।
शाखाएं क्यों न कट जाए।
फल-फूल कोई भी ले जाए।।
गिले-शिकवे कभी न करता है।
देकर प्रतिदान नहीं मांगता है।।
नि: स्वार्थ सेवा सब का करता है।
राहगीर जो आता छाया पाता है।।
पतझड़ में भी मायूस न होता है।
एक उम्मीद पर खड़ा रहता है।।
आश्वस्त हैं, बहारें फिर आयेगी।
पुन: उसे हरा-भरा कर जायेगी।।
बसन्ती हवा का स्पर्श पाकर वह।
फिर से लहलहाती नज़र आयेगी।।