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गुस्ताख़ मोहब्बत
मोहब्बत करने की गुस्ताख़ी क्यूँ हर बार किया करता है
ये इज़हार ही है ऐसा दस्तक चुपके से दिया करता है।
अनजान रहा जो इस अनुभव से वो भी क्या ख़ाक जिया करता है
ये हसीन जुर्म क़बूल किया जिसने वो बड़ा दिलदार हुआ करता है।
लबों पर नाम वो महबूब का बस चुपके से लिया करता है
दिल के तहखाने में कहीं आज भी उसका एक मकान हुआ करता है।
ना रखते ही बन पाया ना छोड़ ही पाया जिसे ऐसा सामान हुआ करता है
लगाकर मोहब्बत का इल्ज़ाम वो गुमनाम सरे आम हुआ करता है।
ये ख़लिश है कुछ ऐसी दर्द जाता नहीं दिल से वही गुनहगार हुआ करता है
ख़ुद ही करता है मोहब्बत और ख़ुद ही रुसवा सरे बाज़ार हुआ करता है।