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ज़िम्मेदारी_से_क्या_उम्र_तय_होती_है..........✍🏻
यूं ही नहीं ये मासूम आंखें हाल-ए-हालात से रोती है
दुनियादारी की ज़िम्मेदारी से क्या उम्र तय होती है
अभी तो ज़िंदगी के सफ़र पे चलना ही शुरू हुआ है
ये कच्चे उम्र डगमगाते हुए रास्ते पे खुद को परोती है

इस दुनिया में भीड़ में मजबूरियां के रिश्ते बहुत है
गुजरते हुए वक़्त के पन्नों पे से मेरी थोड़ी अग़्यारी है
साहब मैं इकलौती हूं इसलिए मुझसे उम्मीदें बहुत है
मेरी मासूम आंखों में ज़िंदगी के तजूर्बा की अदकारी है

कितनी ठोकरें से खाई तक जाकर इक रोटी कमाए है
छोटी-छोटी ज़रूरत के लिए कच्ची उम्र की अन-देखी है
किताबों की उम्र में ज़िम्मेदारियां पे इक चर्चा शुरू करें है
अश्क की ख़ामोशी इन मासूम आंखों की इक हमदर्दी है

कच्ची उम्र से तन्हा सफ़र का ठिकाना ढूंढा शुरू किया है
मेरे ईदगिर्द कच्ची पक्की ईंटों की ये कैसी चार-दीवारी है
जिम्मेदारियां में इस उम्र का हिसाब समेटना शुरू किया है
मैंने ज़ख़्म को भूलाकर ज़िम्मेदारियां से रोटी ख़रीदारी है

ना जाने कहां कहां इस कच्ची उम्र को गिरवी रखा हुआ है
कच्ची उम्र में पक्के हाल-ए-हालात की ये कैसी दुश्वारी है
अनकहे ख्वाबों ख्वाहिशों के लिए रोकर भी यूं सोजाते है
यूं ही नहीं ये मासूम आंखें ज़िम्मेदारियां की ख़ुद-दारी है

{अग़्यारी :- ग़ैरियत, बेगानापन}

© Ritu Yadav
@My_Word_My_Quotes