कवि
मैं शब्दों से खेलता हूँ,
उन अंधेरी रातों में भी एक नया सवेरा देखता हूँ॥
चाहूँ तो कलम से कहर ला डालूं,
चाहूँ तो खंडर से महल बना डालूं॥
चाहूँ तो वक़्त को यहीं थाम डालूं,
मानूँ सिर्फ एक को, न राम न रहीम मानूँ॥
न हूँ चांद,न हूँ रवि,
खुद को बस एक कवि मानूँ॥
उन अंधेरी रातों में भी एक नया सवेरा देखता हूँ॥
चाहूँ तो कलम से कहर ला डालूं,
चाहूँ तो खंडर से महल बना डालूं॥
चाहूँ तो वक़्त को यहीं थाम डालूं,
मानूँ सिर्फ एक को, न राम न रहीम मानूँ॥
न हूँ चांद,न हूँ रवि,
खुद को बस एक कवि मानूँ॥