...

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यादों की कश्ती..
मन के घरोंदे से ..सवार हो कश्ती पर
कुछ बीते लम्हे.. यादें बन सैर पर निकले हैं
जा आज के मोहल्ले में.. कुछ लम्हें मूडे
मुस्कान की गली में, जो चेहरे तक जाती थी
कुछ ज्यादा ही लम्हों को जाना था..
अश्कों की गली में जो, आंखों पर खुलती थी
बन आंसू तनिक झांक देखा इस मेहमान ने नयन घर से
बैठा पाया किसी शख्स को अंधेरे कमरे के किसी कोने में
थोड़ा आगे बढ़ी वो यादें तो हैरान हुई ये देख...
कब वह इतनी बिखरी की उसे शख्स के हाथों की तस्वीर भीगी है
समझ थोड़ी बात को संभाल खुद को
आंसू बन फिर लौट आने का वादा कर ...
वो लम्हे अपने घर को लौट गए ...!!

(yaadon ka bhi ajeeb silsila hai
jis insaan ke dill me rhti hai
usi ko rulati hai..)

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