शोषण
न आँखों से आँसू निकले न निकले जुबां से आवाज ।
स्तब्ध रहती मौन रहती वो रहती व्यथित सी दिन रात।
नज़रें झुकाए रहती लोगों के नज़रिए के कारण।
भाव नकारात्मक से वो करते जा रही थी धारण।
तिल तिल कर वो मर रही थी आत्मा पर लगे चोट से।
सिसकियां भी सुनाई दे रही थी उसके बन्द होठ से।
जीवन की गतिविधियां उसे अंदर ही अंदर कचोट रही थी।
क्या बताऊँ मैं वो खुद से हीं खुद को कितना कोस रही थी।
दोष उसका नहीं था वो...
स्तब्ध रहती मौन रहती वो रहती व्यथित सी दिन रात।
नज़रें झुकाए रहती लोगों के नज़रिए के कारण।
भाव नकारात्मक से वो करते जा रही थी धारण।
तिल तिल कर वो मर रही थी आत्मा पर लगे चोट से।
सिसकियां भी सुनाई दे रही थी उसके बन्द होठ से।
जीवन की गतिविधियां उसे अंदर ही अंदर कचोट रही थी।
क्या बताऊँ मैं वो खुद से हीं खुद को कितना कोस रही थी।
दोष उसका नहीं था वो...