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शोषण
न आँखों से आँसू निकले न निकले जुबां से आवाज ।
स्तब्ध रहती मौन रहती वो रहती व्यथित सी दिन रात।
नज़रें झुकाए रहती लोगों के नज़रिए के कारण।
भाव नकारात्मक से वो करते जा रही थी धारण।
तिल तिल कर वो मर रही थी आत्मा पर लगे चोट से।
सिसकियां भी सुनाई दे रही थी उसके बन्द होठ से।
जीवन की गतिविधियां उसे अंदर ही अंदर कचोट रही थी।
क्या बताऊँ मैं वो खुद से हीं खुद को कितना कोस रही थी।
दोष उसका नहीं था वो तो सुलझी और समझदार थी।
पर जिन आँखों में ख्वाब सजाती वो आँखें हीं शर्मसार थी।
कुछ कह ना पाती बेचारी सिर्फ साँसों से वो ज़िंदा थी।
शोषण करता कोई और पर बेचारी खुद से ही शर्मिन्दा थी।
आँसू हीं थे उसके दर्द के जुबान।
बिन दिखाए बयाँ कर देते ज़ख्मों के निशान।
थिरकती थी कभी वो ज़िन्दगी के ताल पर।
गुमसुम सी रहती है वो अब लोगों के सवाल पर।
एक कमरे में बैठी रहती बन्द कर दरवाजे और खिड़की।
मौन सी हो गयी जाने क्यों बातूनी सी वो लड़की।
सिर्फ शरीर से ही नहीं मन से भी वो बीमार थी।
शारीरिक और मानसिक ''शोषण'' ने उसे धुँधला सा कर दिया था।
वरना वो भी कभी सतरंगी रंगों से गुलज़ार थी।
#life
#writico quotes
© shalini ✍️
स्तब्ध रहती मौन रहती वो रहती व्यथित सी दिन रात।
नज़रें झुकाए रहती लोगों के नज़रिए के कारण।
भाव नकारात्मक से वो करते जा रही थी धारण।
तिल तिल कर वो मर रही थी आत्मा पर लगे चोट से।
सिसकियां भी सुनाई दे रही थी उसके बन्द होठ से।
जीवन की गतिविधियां उसे अंदर ही अंदर कचोट रही थी।
क्या बताऊँ मैं वो खुद से हीं खुद को कितना कोस रही थी।
दोष उसका नहीं था वो तो सुलझी और समझदार थी।
पर जिन आँखों में ख्वाब सजाती वो आँखें हीं शर्मसार थी।
कुछ कह ना पाती बेचारी सिर्फ साँसों से वो ज़िंदा थी।
शोषण करता कोई और पर बेचारी खुद से ही शर्मिन्दा थी।
आँसू हीं थे उसके दर्द के जुबान।
बिन दिखाए बयाँ कर देते ज़ख्मों के निशान।
थिरकती थी कभी वो ज़िन्दगी के ताल पर।
गुमसुम सी रहती है वो अब लोगों के सवाल पर।
एक कमरे में बैठी रहती बन्द कर दरवाजे और खिड़की।
मौन सी हो गयी जाने क्यों बातूनी सी वो लड़की।
सिर्फ शरीर से ही नहीं मन से भी वो बीमार थी।
शारीरिक और मानसिक ''शोषण'' ने उसे धुँधला सा कर दिया था।
वरना वो भी कभी सतरंगी रंगों से गुलज़ार थी।
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